मन्नू भंडारी, जिन्होंने आम ज़िंदगी को उसके अंतर्द्वंद्वों के साथ अपनी लेखनी में समेटा…
The Wire
स्मृति शेष: मन्नू भंडारी को पढ़ते वक़्त ज़िंदगी अपने सबसे साधारण, निजी से भी निजी और सबसे विशुद्ध रूप में सामने आती है- और हम तुरंत ही उससे कुछ अपना जोड़ लेते हैं. मन्नू भंडारी की रचनाएं किसी समाज को बदलकर रख देने का वादा नहीं करती और न स्वयं लेखक ही पाठक को इस मुगालते में रखती हैं.
मन्नू भंडारी’- यह वह नाम है जिनकी महानता के कसीदे नहीं पढ़े गए या जिसके लेखन को किसी विचारधारा या किसी वाद से नहीं जोड़ा गया, पर फिर भी एक बड़े जन-समुदाय ने इन्हें स्वीकार किया. हालांकि लिखना भी उन्होंने एक लंबे अरसे से छोड़ दिया था, और जो लिखा था वह भी एक अलग समय में, एक अलग संदर्भ में रचा था, पर वाकई आश्चर्य होता है कि उनके लिखे से तादात्म्य कर पाना हर किसी के लिए क्यों सहज था?
आज भी जब निर्देशक बासु चटर्जी की रजनीगंधा (1974) फिल्म देखते हैं, जो मन्नू भंडारी की बहुचर्चित कहानी ‘यही सच है’ (1966) पर आधारित थी, तो नायिका दीपा की मनःस्थिति और प्रेम को लेकर उसकी दुविधा कितनी वास्तविक और प्रासंगिक लगती है. कहानी में दीपा के मन में चलने वाले अंतर्द्वंद्व को जिस बारीक मनोवैज्ञानिकता से मन्नू जी दिखलाती हैं, वह सही मायने में स्त्री को, उसकी इच्छाओं को हाशिये से केंद्र में लाने की कवायद लगती है.
मन्नू भंडारी का लेखन कई दशकों में समाहित रहा है, पर उनकी रचनात्मकता का उफान हमें 1960-1980 के बीच में दिखता है जब न केवल नई कहानी आंदोलन हिंदी-साहित्य को आप्लावित कर रहा था, बल्कि उनका समकालीन महिला लेखन भी अपने चरम पर था.