
भारत के लोकतंत्र और मीडिया को बचाने की एक गुहार…
The Wire
आज जब हम एक ऐसे ख़तरे से रूबरू हैं जहां सचमुच अपने लोकतंत्र को खो सकते हैं, हमारे लिए यह बहुत ज़रूरी है कि इस बात पर यक़ीन रखें कि हम इस तबाही से ख़ुद को बचा सकते हैं.
यह लेख 15 अप्रैल 2022 को ब्राउन यूनिवर्सिटी में लेखक द्वारा दिए गए ओपी जिंदल डिस्टिंगुएश लेक्चर है, जिसे थोड़ा संशोधित किया गया है ताकि संवाद में शामिल तीन विद्वानों एड लुस, पाउला चक्रवर्ती और सलिल त्रिपाठी के साथ–साथ आशुतोष वार्ष्णेय द्वारा सुझाए गए बिंदुओं को शामिल किया जा सके. लेखक उनके प्रति, और ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टिट्यूट में आए दर्शकों का उनकी टिप्पणियों, सुझावों और सवालों के लिए आभारी है. ‘मैं अपने लोकतंत्र से ही शुरू करूंगा, हरेक लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है… हमने उन चुनौतियों को देखा जिनका अतीत में और आज भी हमारा लोकतंत्र सामना कर रहा है. लेकिन एक मायने में यह सभी लोकतंत्रों की एक साझी चीज़ है. हम… अपने स्थापना दस्तावेज़ में एक दोषमुक्त (परफ़ेक्ट) यूनियन की तलाश की बात करते हैं. इसका मतलब ही है कि हम मुकम्मल नहीं हैं और हमारी पूरी तलाश उन आदर्शों के अधिक से अधिक करीब जाने की है जिन्हें हमने अपने लिए नियत किया है… और आख़िरकार, मुझे लगता है कि हमारे लोकतंत्रों में ख़ुद को सुधारने की एक व्यवस्था है, जो (व्यवस्था) विभिन्न पृष्ठभूमियों, विभिन्न आस्था वाले स्वतंत्र नागरिकों से, एक मुक्त मीडिया से, स्वतंत्र अदालतों से मिलकर बनी है और जिसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मज़बूती बनाते हैं.’ ‘एक, कि एक अधिक दोषमुक्त यूनियन की तलाश भारतीय लोकतंत्र पर जितनी लागू होती है उतनी ही अमेरिकी लोकतंत्र पर भी – बल्कि सभी लोकतंत्रों पर. दूसरी बात, सभी क़िस्म के शासन की यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि जब कोई ग़लत बात हुई हो तो उसे सुधारा जाए, जिसमें ऐतिहासिक ग़लतियां भी शामिल हैं. और आपने पिछले कुछ बरसों में जो फ़ैसले और नीतियां देखी हैं, उनमें से अनेक इसी श्रेणी में आती हैं. ‘हमारे बीच की साझी बातों में मानवाधिकारों की रक्षा जैसे अपने लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति वचनबद्धता भी शामिल है. इन साझे मूल्यों पर हम अपने भारतीय सहयोगियों के साथ नियमित रूप से बातचीत करते हैं, और इस मक़सद से हम भारत में होने वाली हालिया घटनाओं की निगरानी कर रहे हैं, जिसमें कुछ सरकारी, पुलिस और जेल अधिकारियों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं में इज़ाफ़ा शामिल है.’
भारत में लोकतंत्र में कमियां हमेशा ही रही हैं और यहां का मीडिया उन ख़ामियों पर उंगली रखने की भूमिका निभाता रहा है. लेकिन आज मैंने लोकतंत्र और मीडिया के इस दोहरे मुद्दे पर बोलने का फ़ैसला किया है तो इसलिए कि हम इन दोनों के ही जीवन के एक बेहद ख़तरनाक दौर से गुज़र रहे हैं. और तीसरे, कि स्वतंत्रताएं महत्वपूर्ण हैं, हम उन्हें अहम मानते हैं, लेकिन हम कभी भी शासनहीनता या शासन के अभाव या बुरे शासन को स्वतंत्रता के बराबर नहीं रखते हैं.’
बेशक आज जब हम अपने ‘लोकतंत्र के स्तंभों’ में से सभी की निर्णायक रूप से डगमगाती हुई हालत को देख रहे हैं तो ऐसे में उस अनदेखी, बेपरवाही और नुक़सानदेह रवैये को याद करना फ़ायदेमंद होगा, जिसने हमें यहां तक पहुंचाया है. यह बात बहुत साफ़ है कि हमारा गणतंत्र आज ख़ुद को जिन हालात में पाता है, वहां हम एक दिन में नहीं पहुंचे हैं, न ही यह किसी अकेले शख़्स या अकेली पार्टी का कारनामा है.
भविष्य के इतिहासकार जब यह कहेंगे कि नई दिल्ली एक दिन में तबाह नहीं हुई थी, तब इसमें कोई शक नहीं कि वे बहुत सटीक बात कह रहे होंगे. लेकिन हमें इस बात को क़बूल करने की ईमानदारी भी होनी चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र के ताने-बाने को नरेंद्र मोदी, उनकी पार्टी और उनकी सरकार ने इतनी बुरी तरह से- और जानबूझकर- तबाह किया है कि आज हम एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां से छुटकारा पाना उतना आसान नहीं होगा, जितना 1977 में देखा गया था.