भगत सिंह: वो चिंगारी जो ज्वाला बनकर देश के कोने-कोने में फैल गई थी…
The Wire
अगस्त 1929 में जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में हुई एक जनसभा में उस समय जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके साथियों के साहस का ज़िक्र करते हुए कहा कि ‘इन युवाओं की क़ुर्बानियों ने हिंदुस्तान के राजनीतिक जीवन में एक नई चेतना पैदा की है... इन बहादुर युवाओं के संघर्ष की अहमियत को समझना होगा.’
‘वे सभी बहुत कमजोर हो चुके थे और बिस्तर पर पड़े थे. भगत सिंह ख़ूबसूरत व्यक्तित्व और बौद्धिक मिज़ाज वाले थे, बिल्कुल धीर-गंभीर और शांत. उनमें ग़ुस्से का लेशमात्र भी नहीं था. वे बड़ी विनम्रता से बातें कर रहे थे. जतिन दास तो और भी कोमल, शांत और विनम्र लगे. हालांकि तब वे गहरी पीड़ा में थे.’ सुभाष आज दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक ख़ुराक नहीं दे रहे हैं. आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगांतकारी विचारों को खूब सोच-विचारकर पक्का कर लेना चाहिए. इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अंधे पैरोकार बन जाना चाहिए. लेकिन जहां तक विचारों का संबंध है, वहां तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इंक़लाब के वास्तविक अर्थ, हिंदुस्तान में इंक़लाब की ज़रूरत, दुनिया में इंक़लाब का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें. जितना मैं नौजवान भारत सभा और उसके सदस्यों को जानता हूं, पुलिस चाहे कितना भी दमन या आतंक फैलाने की कोशिश कर ले, वह उन नौजवानों की ललक और देशभक्ति को डिगा नहीं सकती. वे बहादुर लोग हैं, जिन्हें अपने कार्यों के परिणाम का अंदाज़ा बख़ूबी है और वे उससे डरते नहीं. ‘लगभग बीस दिनों से वे लोग किसी भी तरह का भोजन नहीं कर रहे और मुझे यह भी मालूम हुआ है कि उन्हें ज़बरदस्ती खिलाने की कोशिशें भी की जा रही हैं. इन दोनों नौजवानों ने भले ही ग़लत रास्ता चुना हो, मगर कोई भी हिंदुस्तानी उनके अप्रतिम साहस की सराहना करने से ख़ुद को रोक नहीं सकता. वे जिस कष्ट से गुजर रहे हैं, उससे हमारा हृदय व्यथित है. वे किसी निजी स्वार्थ के लिए बल्कि सभी राजनीतिक बंदियों की भलाई के लिए ये भूख हड़ताल कर रहे हैं. हम गहरी चिंता के साथ उनकी इस मुश्किल घड़ी पर निगाह रखे हुए हैं और हमें पूरी उम्मीद है कि हमारे ये बहादुर भाई इन मुश्किलों पर जीत ज़रूर हासिल करेंगे.’ वे एक बेदाग़ योद्धा थे, जिन्होंने अपने शत्रु का सामना खुले मैदान में किया. वे देश के लिए कुछ कर गुजरने के उत्साह और ललक से भरे एक नौजवान थे. वे एक चिंगारी की तरह थे, जो देखते-ही-देखते ज्वाला बनकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गई. एक ऐसी ज्वाला जिसने देश में चहुंओर छाए अंधकार को मिटाने का काम किया.
ये जवाहरलाल नेहरू के शब्द हैं. जो उन्होंने अगस्त 1929 में लाहौर जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों से हुई अपनी पहली मुलाक़ात की याद करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखे हैं. उन्हें बाहर से हिम्मत या दिलासा की ज़रूरत नहीं, लेकिन वे नौजवान निश्चिंत रहें कि हिंदुस्तान के लोगों की संवेदना उनके साथ है और वे उनकी हरसंभव मदद करेंगे. मुझे भरोसा है कि नौजवान भारत सभा जीवंत बनी रहेगी और अधिक मज़बूत होकर भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भागीदारी करेगी.
इससे वर्ष भर पहले जुलाई 1928 में ‘किरती’ पत्रिका में भगत सिंह ने एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के विचारों की तुलना की थी.
इन दोनों राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में भगत सिंह अपने उक्त लेख में लिखते हैं कि ‘यही दो नेता हिंदुस्तान में उभरते नज़र आ रहे हैं और युवाओं के आंदोलन में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं. दोनों ही हिंदुस्तान की आज़ादी के कट्टर समर्थक हैं. दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं.’