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प्रचार प्रक्रिया में बदलाव चुनाव प्रक्रिया बदलना है, पर क्या चुनाव आयोग को ऐसा करने का हक़ है
The Wire
चुनाव आयोग का इलेक्ट्राॅनिक व डिजिटल प्रचार पर निर्भरता को विकल्पहीन बनाना न्यायसंगत नहीं है. दूर-दराज़ के कई क्षेत्रों में अब भी बिजली व इंटरनेट का ठीक से पहुंचना बाकी है, ऐसी जगहों के वंचित तबके के मतदाताओं के पास इतना डेटा कैसे होगा कि वे हर पार्टी के नेता के चुनावी भाषण सुन सके? क्या कोरोना के ख़तरे की आड़ में ऐसे सवालों की अनसुनी की जा सकती है?
गत दिनों चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित करते हुए रैलियों आदि की मार्फत परंपरागत प्रचार पर रोक लगा दी, जिससे पार्टियों व प्रत्याशियों को अपने विचारों व नीतियों को मतदाताओं तक पहुंचाने के लिए प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल व सोशल आदि विभिन्न मीडियारूपों का ही सहारा रह गया, तो बहुत से लोगों को मई, 1982 की याद आई.
तब चुनाव आयोग ने केरल के एर्नाकुलम जिले के परवूर विधानसभा क्षेत्र के चुनाव में 84 में से पचास बूथों पर मनमाने तौर पर मतदान की प्रक्रिया बदलकर उसमें बैलेट पेपरों के बजाय इलेक्ट्राॅनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल कर लिया था.
तब तक 1551 के जनप्रतिनिधित्व कानून और 1961 के चुनाव कानून में ऐसे किसी बदलाव की व्यवस्था नहीं थी. शायद इसीलिए चुनाव आयोग ने इस बदलाव को ट्रायल बताया था. लेकिन इसके बाद का उसका अनुभव अच्छा नहीं रहा.
उक्त चुनाव में हुए बेहद नजदीकी मुकाबले में कांग्रेस प्रत्याशी एसी जोस, जो राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे थे, मामूली वोटों के अंतर से हार गए तो हाईकोर्ट चले गए, जहां उन्होंने अपनी याचिका में सवाल उठाया कि क्या संसद द्वारा जनप्रतिनिधित्व व चुनाव संबंधी कानूनों में संशोधन करके इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल का प्रावधान किए बगैर चुनाव आयोग को अपनी ओर से बैलेट पेपर के बजाय मशीनों से मतदान कराने का अधिकार है?