
पारुल खक्कर की कविता से गुजरात की बेहिसी के बीच उम्मीद दिखती है…
The Wire
पारुल खक्कर की कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है, कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है. गुजरात के समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है.
पारुल खक्कर की एक छोटी-सी कविता से गुजरात में तूफ़ान आ गया है. गुजरात के लिए यह अस्वाभाविक माना जा रहा है. एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’ साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा ख़त्म हुए श्मशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी दर-दर जाकर यमदूत खेले मौत का नाच बेढंगा साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा नित लगातार जलती चिताएं राहत मांगे पलभर नित लगातार टूटे चूड़ियां कुटती छाती घर-घर देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’ साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती हो हिम्मत तो आके बोलो ‘मेरा साहेब नंगा’ साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा वैसे गुजराती में तूफ़ान शब्द का इस्तेमाल 2002 और उसके बाद एक दूसरे अर्थ में सुना था.ऑटोवाले हों या कोई और, 2002 में 28 फरवरी के बाद जो हिंसा हुई उसे तूफ़ान ही कहते मिले. तूफ़ान आया था, चला गया या थम गया. हिंदी के हिसाब से सोचकर अजीब लगा कि 2002 के संहार, हिंसा का जिक्र एक कुदरती हादसे की तरह हो. लेकिन गुजराती से धीरे-धीरे परिचित होने के बाद समझ में आया कि तूफ़ान यानी उपद्रव. फिर भी 2002 के पांच साल बाद लोगों को कहते सुना कि अब कोई दिक्कत नहीं .यह भी सुना और बार-बार सुना कि तूफ़ान के चलते ही अमन है! एक तूफ़ान आया और उसके चलते बाद में आया अमन का राज. गुजरात की ज़िंदगी सम पर चलने लगी. एक गुजरात में दो गुजरात बन गए हैं, बॉर्डर गुजराती का एक शब्द है, एक मसले पर दो लोग आंख मिलाकर बात नहीं कर पाते लेकिन गुजरात में सब कुछ मज़े में चलता रहा.More Related News