
पटना ने हमेशा बदली है दिल्ली की सियासत, किसी को दिलाई सत्ता तो किसी के लिए बना आफत
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पटना में 23 जून को 17 विपक्षी पार्टियों की बड़ी बैठक हुई. इसमें सभी ने एकजुट होकर साल 2024 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के खिलाफ लड़ने का ऐलान किया. इस मीटिंग में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के नेता यानी स्टालिन से लेकर उमर अब्दुल्ला तक शामिल हुए. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब पटना देश की सियासत का केंद्र बिंदु बना है.
'जो कुछ भी पटना से शुरू होता है, वह जन आंदोलन का रूप लेता है.' पटना में 23 जून को 17 विपक्षी दलों की मीटिंग के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कहे इन शब्दों के व्यापक निहतार्थ को अगर समझें तो इसके पीछे कई ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम हैं, जिन्होंने बिहार की राजधानी पटना को सत्ता के बदलाव का केंद्र बनाया और इतिहास भी इसका गवाह रहा है.
जब-जब देश को बदलाव, नए विचारों और रास्तों की जरूरत हुई है, तब-तब पटना ने ऐसी राजनीतिक लकीर खींची, जिसने दिल्ली की सत्ता को ना सिर्फ चुनौती दी है बल्कि परिवर्तन की नई इबारत लिखी. इसका साक्षी देश का इतिहास रहा है. पटना की राजनीतिक अहमियत की शुरुआत होती है साल 1965 से. तब देश आजादी के बाद सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा था. साथ ही देश के लोग दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहे थे.
पटना के भाषण ने लोहिया को बना दिया था विपक्ष का सबसे बड़ा नेता
दरअसल, साल 1965 में कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार के मुख्यमंत्री थे. उनकी जन विरोधी नीतियों को लेकर कांग्रेस नेता और प्रखर समाजवादी राममनोहर लोहिया ने मोर्चा खोल दिया, जबकि सहाय उन्हीं की पार्टी यानी कि कांग्रेस के नेता थे. देश और बिहार भारी अकाल के दौर से जूझ रहा था. लोग दाने-दाने को मोहताज थे और सीएम सहाय हजारीबाग में इंदिरा गांधी के स्वागत में महावन भोज का आयोजन कर रहे थे.
लोहिया से ये बर्दाश्त ना हुआ और उन्होंने पटना में एक जनसभा के दौरान अपनी ही पार्टी के सीएम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उन्होंने कहा, 'राज्य की भूखी जनता को अन्न की जगह भाषण खिलाया जाता है, यह अकाल प्राकृतिक हो या मानवजनित लेकिन लोगों की भूख नकली नहीं है.' इतना ही नहीं उन्होंने मुख्यमंत्री पर हमला बोलते हुए कहा कि लोगों को अब भी भरोसा है सीएम जनता को भरपेट अनाज देंगे, लाठी और गोली नहीं.'

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