नफ़रत के दिनों की ईद ज़्यादा खुले दिल से मनाई जानी चाहिए…
The Wire
हमारी दुनिया में कितनी भी मायूसी हो, चाहे जितनी भी नफ़रत पैदा की जा रही हो, उम्मीद और प्रेम के उजालों में चलकर ही कहीं पहुंचा जा सकता है.
नफ़रत के दिनों की ईद नफ़रत के ख़िलाफ़ खुले दिल से ज़्यादा सद्भावना और सदाशयता के साथ मनाई जानी चाहिए! ‘कश्मीर … मैंने यहां जन्म लिया. यहीं पर पला हूं, बढ़ा हूं, यहीं पर मैंने तालीम हासिल की. तक़रीबन 40 साल इस धरती से जुड़ा रहा. यहां हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी आपस में मिल-जुलकर रहते थे. मेरे ज़्यादातर दोस्त मुसलमान थे. आज जिस कुर्सी पर बैठा हूं, एक मुसलमान दोस्त की देन है. मालूम नहीं इस वादी को किसकी नज़र लग गई और ये शहर-ए-ख़ामोशां में तब्दील हो गई. ‘गया नहीं बल्कि भाग गया है,’ दूसरे शख़्स ने कहा.
ऐसी कामना करते हुए अपने मुल्क में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को बचाने की जिद्द-ओ-जहद और तमाम चिंताओं के बीच प्रेम के इसी जज़्बे को मैं एक-दूसरे के हक़ में सबसे बड़ी ईदी समझता हूं. मेरी बिरादरी के तीन लाख से ज़्यादा लोग वादी से हिजरत कर गए. मैंने वो सारे मनाज़िर अपनी आंखों से देखे हैं. वो कोई आफ़ात-ए-समावी (आसमानी) नहीं थी बल्कि आफ़ात-ए-इंसानी थी. जिस वादी में 40 साल न कभी किसी क़त्ल की वारदात सुनने में आई, न किसी औरत की बे-हुरमती हुई, न डाका-ज़नी हुई और न गैंगरेप हुए, वहां इस्लाम की तदरीस की ज़रूरत न थी. मगर हमने उसे रोका क्यों नहीं? हम बदरी के बग़ैर मुकम्मल नहीं हैं और न ही हमारे आबा-ओ-अजदाद मुकम्मल थे.
दरअसल, हमारी दुनिया में कितनी भी मायूसी हो, और चाहे जितनी भी नफ़रत पैदा की जा रही हो, उम्मीद और प्रेम के उजालों में चलकर ही कहीं पहुंचा जा सकता है, जैसे कई बार एक हल्का-सा स्पर्श भी मौन अंधेरों के घाव भर देता है. अगर इस्लाम की तदरीस की ज़रूरत है तो उन मुल्कों में जहां पर्दे के बावजूद औरतें ग़ैर महफूज़ हैं, जहां कमउम्र लड़के घरों से बाहर आने से डरते हैं. जहां न तालीम की फ़रावानी है और न ही रोज़गार की. मगर सवाल पैदा होता है कि हमने बदरी को जाने क्यों दिया?
पिछले दिनों शायद ही कोई तीज-त्योहार हमारे लिए हर्षोल्लास की वजह बना हो. ‘रामनवमी’ और ‘हनुमान’ जयंती पर नफ़रत और हिंसा की ख़बरें अभी तक हमारे ज़ेहनों में ताज़ा हैं. और ये सब उस मुल्क में हुआ, जहां कभी यगाना चंगेज़ी ने कहा था; सच तो ये है कि कश्मीर के सूफ़ियों और ऋषियों ने बरसों पहले मारिफ़त का जाम पिया था और ये वादी सारी दुनिया को सच्चे इस्लाम का दर्स दे सकती थी.’ क्योंकि हम सच्चे मुसलमान नहीं रहे, अब्दुल ने कहा.