
नरेंद्र मोदी से यूं ही नाराज नहीं हैं पुरी शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती, भाजपा-संघ से है पुरानी रार
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किसी भी पूजा और यज्ञ के लिए एक यजमान की जरूरत होती है. और राजा से बड़ा यजमान और कौन हो सकता है? और लोकतंत्र में प्रधानमंत्री ही राजा के समान होता है. तो फिर गलती कहां हो रही है. आखिर स्वामी निश्चलानंद को नाराजगी किस बात की है?
पुरी शंकराचार्य की गोवर्धन पीठ की वेबसाइट भी है- https://govardhanpeeth.org/. इसके होमपेज पर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती का कथन एक लाइन में लिखा है- शंकराचार्यों की यह जिम्मेदारी है कि वह शासकों पर शासन करें (It is the responsibility of 'Shankaracharyas' to rule over the rulers). शासन तंत्र में शंकराचार्यों के स्थान को लेकर उनका मत इतना स्पष्ट है कि वह उनके बाकी बयानों में झलक ही जाता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से उनका 'टकराव' कोई नया नहीं है. ताजा मामला अयोध्या में रामलला की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने को लेकर है. जिसमें निश्चलानंद सरस्वती ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि वे कार्यक्रम में नहीं जाएंगे. उनका यह रवैया सिर्फ कार्यक्रम में आमंत्रण से जुड़ा नहीं है. बल्कि इसका एक अतीत है. आइये, इसे समझते हैं.
22 जनवरी को होने वाले रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा उत्सव के निमंत्रण और शामिल होने के नाम पर सिर्फ देश में विरोधी दल के नेता ही नहीं कन्फ्यूज हैं बल्कि संत समाज में भी भ्रम की स्थिति है. जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने तो राम मंदिर समारोह में न जाने की बात कहकर कंट्रोवर्सी खड़ी कर दी है. रतलाम में उन्होंने इस बारे में पत्रकारों से अपने मन की बात कही. बेहद उखड़े-उखड़े लग रहे शंकराचार्य की बातों को समझने के लिए उनके पूरे बयान को अलग अलग करके देखना जरूरी है. पहले वे कहते हैं कि 'उन्हें पता चला है कि जो आमंत्रण मठ पर आया है उसमें कहा गया है कि मैं किसी एक व्यक्ति के साथ कार्यक्रम में आ सकता हूं. यदि वो कहते कि मैं अपने सब लोगों के साथ कार्यक्रम में आऊं तो भी न जाता.' शंकराचार्य का यह कथन आमंत्रण की भूमिका और कार्यक्रम के स्वरूप दोनों पर प्रहार है. जिस तरह उन्होंने मठ को दो व्यक्तियों की सीमा वाले आमंत्रण का उल्लेख किया है, वह उन्हें अच्छा नहीं लगा है. लेकिन, उनके ऐतराज की सबसे बड़ी गंभीरता उनके बयान के अगले अंश में थी. शंकराचार्य अपनी आपत्तियों का कहते कहते, यह तक कह गए कि 'प्रधानमंत्री वहां लोकार्पण करें, मूर्ति का स्पर्श करेंगे तो क्या मैं ताली बजाऊंगा?' प्रधानमंत्री द्वारा रामलला की मूर्ति का लोकार्पण करना बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह समझ से परे है कि वे मोदी के मूर्ति स्पर्श करने को लेकर क्यों ऐतराज उठा रहे हैं? क्या वे मोदी को इस काबिल नहीं मानते हैं कि वे रामलला की मूर्ति का स्पर्श करें? इसे शंकराचार्य ही स्पष्ट कर सकते हैं कि उनके मन में क्या रहा होगा. हालांकि, एक अन्य न्यूज चैनल को दिये इंटरव्यू में शंकराचार्य यह स्पष्ट कह रहे हैं कि अंबेडकर मूर्ति लगाने और रामलला की मूर्ति लगाने के विधान में तो अंतर है ही. यदि इन विधानों का पालन नहीं होगा तो भगवान का वास होने के बजाय भूत-प्रेत का वास हो जाएगा.
शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती के बयानों में छुआछूत की गंध है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन हिंदू धर्मगुरु होने के चलते ये बात तो उनको भी पता होगी कि किसी भी पूजा और यज्ञ के लिए एक यजमान की जरूरत होती है. सांगवेद संस्कृत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य व कर्मकांड के विद्वान डॉक्टर हरिद्वार शुक्ल कहते हैं कि 'राजा से बड़ा यजमान और कौन हो सकता है? और लोकतंत्र में प्रधानमंत्री ही राजा के समान होता है. विद्वान संत व ब्राम्हण लोग शास्त्रीय तरीके से विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा करवाते हैं. नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं. उनका मुख्य यजमान रहना सर्वथा शास्त्रवत है.'
क्या विवाद की जड़ में छुआछूत है?
स्वामी निश्चलानंद सवाल करते हैं कि मोदी मूर्ति को स्पर्श करेंगे और मैं वहां ताली बजाऊंगा? तो क्या इसका सीधा मतलब ये नहीं निकलता है कि शंकराचार्य को मोदी के मूर्ति को स्पर्श करने से दिक्कत हो रही है. ऐसा आरोप इसलिए भी लग रहा है क्योंकि स्वामी निश्चलानंद का संबंध करपात्री महाराज से रहा है. करपात्री महाराज ने ही स्वामी निश्चलानंद को संन्यास दिलवाया था. और करपात्री महाराज के नाम पर दलित विरोध का एक ऐसा तमगा लगा हुआ जिसका आज के समय में कोई समर्थन नहीं कर सकता.

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