दिल्ली विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में एक प्रकार का संहार अभियान चल रहा है
The Wire
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है; कि स्थायी नियुक्ति का आधार योग्यता नहीं, भाग्य और सही जगह पहुंच है.
हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से मृत्यु की खबर के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में तूफ़ान आ जाना चाहिए था. लेकिन वह नहीं हुआ.समरवीर सिंह को आख़िर अध्यापक क्यों कहें, वे अस्थायी अध्यापक ही तो थे! इसलिए शायद यह दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का मामला भी नहीं बनता. हालांकि अस्थायी अध्यापक उसके सदस्य होते हैं और वे ही विभिन्न शिक्षक गुटों के मतदाता भी होते हैं. लेकिन जैसे इस देश के जनतंत्र को किसी मतदाता की अस्वाभाविक मृत्यु से फ़र्क नहीं पड़ता, वैसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को भी समरवीर सिंह की आत्महत्या से क्यों पड़ना चाहिए?
हिंदू कॉलेज के छात्र भी एक दूसरे विरोध में व्यस्त थे इसलिए अपने अध्यापक की इस मौत पर सोचने का शायद उन्हें वक़्त न मिला हो. उनके सालाना जश्न पर प्रशासन ने कई पाबंदियां लगा दी थीं और वे उसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. मालूम नहीं उन्होंने अपने इस जश्न की शुरुआत अपने इस ‘अभाग्यशाली’ अध्यापक के लिए मौन के साथ की या नहीं!
वे अस्थायी शिक्षक भी ख़ामोश रहे जो कुछ साल पहले तक ख़ुद को नियमित कराने को लेकर सड़क पर थे. अब उनमें से प्रायः सब एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज दौड़ रहे हैं. विरोध की फुर्सत उनके पास नहीं. स्थायी नियुक्तियों का दौर चल रहा है और सब अपना भाग्य आजमा रहे हैं. उनमें से ज़्यादातर का भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा. जैसा हिंदू कॉलेज में समरवीर सिंह के साथ हुआ. इसी से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है. योग्यता नहीं; भाग्य और सही जगह पहुंच, यह आधार है स्थायी नियुक्ति का.
किसी पद के उम्मीदवार का ‘सोर्स’ कितना तगड़ा है, इससे तय होगा कि उसकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में होगी या नहीं. कोई कह सकता है कि यह आज की ही बात नहीं. अरसे से हम यह देख रहे हैं. पहुंच के साथ योग्यता हो तो सोने पर सुहागा, लेकिन असल चीज़ है पहुंच.