जय भीम: आशा और निराशा दोनों के यथार्थ दिखाता न्याय का संघर्ष
The Wire
टीजे ज्ञानवेल की 'जय भीम उम्मीद और नाउम्मीदी की फ़िल्म है. उम्मीद इसलिए कि यह दिखती है कि इंसाफ़ के लिए लड़ा जा सकता है, जीता भी जा सकता है. नाउम्मीदी इसकी कि शायद हमारे इस वक़्त में यह सब कुछ एक सपना बनकर रह गया है.
‘जय भीम’ देखते हुए रोया. यह कहने में कोई शर्म नहीं है. रोया उम्मीद से और नाउम्मीदी से रोया. उम्मीद इसकी कि इंसाफ़ के लिए लड़ा जा सकता है. जीता भी जा सकता है. नाउम्मीदी इसकी कि शायद हमारे इस वक़्त में यह सब कुछ एक सपना बनकर रह गया है. उम्मीद इसकी कि अन्याय अगर व्यवस्था से पैदा होता है तो उसी व्यवस्था में उसकी मर्यादा के लिए उसका महाजन उठ खड़ा हो सकता है. सादगी से, जैसे वह तो सिर्फ़ उसका रोज़मर्रा का काम है.
जैसा इस फ़िल्म में वे न्यायाधीश करते हैं जो वकील चंद्रू की अर्ज़ियों को क़बूल करते हैं, जो यूं तो असाधारण लगता है, लेकिन जैसा फ़िल्म में दिखता है उन दोनों न्यायाधीशों के लिए वही करना सबसे स्वाभाविक था. क्योंकि भले ही वह प्रथा विरुद्ध हो लेकिन उस क्षण में न्याय के लिए उचित वही था. नाउम्मीदी इसलिए कि अब यह सब कुछ न तो स्वाभाविक है न उसे स्वाभाविक बनाया जाता है.
फ़िल्म जितनी एक इरुला आदिवासी औरत सेंगेनी की कहानी है, उतनी ही उसका साथ देनेवाले वकील चंद्रू की भी. अपने पति राजकन्नु की पुलिस हिरासत में यातना देकर हत्या के बाद इंसाफ़ के लिए लड़ती सेंगेनी और अदालत में उस लड़ाई को आगे बढ़ाता वकील चंद्रू: दोनों ही हर कदम पर जैसे एक दूसरे के क़द को और बड़ा करते जाते हैं.
जो निरक्षर लोगों को देश के लिए बोझ मानते हैं यह फ़िल्म उन्हें सबक़ सिखलाती है. न्याय, अन्याय का विवेक अक्षरों का मोहताज नहीं. जैसे कबीर ने कहा था कि प्रेम की शिक्षा भी पोथी का इंतज़ार नहीं करती.