
चीख़ और नारे में फर्क है पर जो कविता नहीं सुन सकता, वह चीख़ भी नहीं समझ सकता
The Wire
जिस समाज को नारों के बिना कुछ सुनाई न पड़े उसके कान नारों से भोथरे भी हो सकते हैं. ज़ोर से बोलते रहना, शब्दों को पत्थर की तरह फेंकना, उनसे वार करते रहना, इससे मन को तसल्ली हो सकती है लेकिन इससे समाज में आक्रामकता बढ़ती है.
‘गर्मियों की रात में कितना अच्छा लगता है उस रास्ते पर चलना, जिस पर मालती ने अपनी गंध छिड़क दी हो… ‘ मैंने अपनी बेटी को यह कविता सुबह सुबह भेजी. उसके नाना की लिखी है. नंदकिशोर नवल की. आज के ही दिन साल भर पहले उन्होंने इस दुनिया से विदा ली थी. उस दुनिया से जो मर्त्य है लेकिन जिसके अलावा और कहीं मालती गंध सिक्त पथ नहीं. ‘कितनी सुंदर कविता है,’ अपने कमरे से फौरन बेटी ने लिखा. जाने क्यों दिल को तसल्ली हुई. कविता का सौंदर्य अगर समझ पा रही हो तो वह जीवन को भी ठीक ही समझ लेगी. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है, यह धूमिल ने कहा था. आदमी होने की तमीज का गाढ़ा रिश्ता ज़बान की तमीज से है. ज़बान खुलते ही आपका पता दे देती है.More Related News