![क्यों डराते हो ज़िंदां की दीवार से…](http://thewirehindi.com/wp-content/uploads/2021/06/Natasha-Narwal-Devangana-Kalita-Asif-Iqbal-Tanha-PTI.jpg)
क्यों डराते हो ज़िंदां की दीवार से…
The Wire
किसी भी आम नागरिक के लिए जेल एक ख़ौफ़नाक जगह है, पर देवांगना, नताशा और आसिफ़ ने बहुत मज़बूती और हौसले से जेल के अंदर एक साल काटा. उनके अनुभव आज़ादी के संघर्ष के सिपाहियों- नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जेल वृतांतों की याद दिलाते हैं.
देवांगना कलीता और नताशा नरवाल के नाम से कौन जागरूक भारतवासी वाक़िफ़ न होगा आज. एक साल की जेल के बाद ज़मानत पर रिहा हुए करीब चार हफ़्ते हुए हैं और आगे का वक़्त भी लंबी जद्दोजहद का है. यही बात आसिफ़ इक़बाल तनहा की भी है, जो उन दोनों के साथ ज़मानत पर रिहा हुए. ‘और फिर अचानक न जाने कहां से, कैसे, वह हुआ कल शाम. सूरज के छिपने से पहले का समां था….. आसमान ग़ैर-मामूली तौर पर नीला और साफ़, शाम की नाज़ुक रौशनी छेड़छाड़ करती हुई सी, सूरज बादलों में छुपता और कभी उनमें से झांकता हुआ सा, और बहुत ही हल्की सी बूंदाबांदी. एक पल को मन में एक आस ने दस्तक दी, लेकिन मैं उम्मीद लिए हुए भी डर रही थी. ‘मगर जेल में तो सूर्योदय और सूर्यास्त दिखाई नहीं देते थे. क्षितिज हमसे छिपा हुआ था और प्रात:काल तप्त सूर्य हमारी रक्षक दीवारों के ऊपर देर से निकलता था. कहीं चित्र-विचित्र रंग का नामोनिशान नहीं था और हमारी आंखें सदा उन्हीं मटमैली दीवारों और बैरकों का दृश्य देखते-देखते पथरा गई थीं. वे तरह-तरह के प्रकाश, छाया और रंगों को देखने के लिए भूखी हो रही थीं और जब बरसाती बादल अठखेलियां करते हुए, तरह-तरह की शक्लें बनाते हुए, भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग धारण करते हुए हवा में थिरकने लगे तो मैं पगलों की तरह आश्चर्य और आह्लाद से उन्हें निहारा करता. कभी-कभी बादलों का तांता टूट जाता और इस प्रकार जो छिद्र हो जाता, उसके भीतर से वर्षा-ऋतु का एक अद्भुत दृश्य दिखाई देता था. उन छिद्र में से अत्यंत गहरा नीला आसमान नज़र आता था, जो अनंत का ही एक हिस्सा मालूम होता था.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ- 122) ‘जेल की मेरी पहली मियाद के दिन… मेरे और जेल कर्मचारियों, दोनों ही के लिए क्षोभ और बेचैनी के दिन थे. जेल के अफ़सर इन नई तरह के अपराधियों की आमद से घबरा-से गए थे. इन नए आने वालों की महज़ तादाद ही, जो दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती थी, ग़ैर-मामूली थी… इससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह थी कि नये आने वाले लोग बिल्कुल निराले ढंग के थे. ‘2 बजे सुपरिंटेंडेट ने गवर्नमेंट बंबई का एक तार हवाले किया जिसमें हादसे की ख़बर दी गई थी… इस तरह हमारी छत्तीस बरस की इज़दवाज़ी [दांपत्य] ज़िंदगी ख़त्म हो गई और मौत की दीवार हम दोनों में हायल हो गई. हम अब भी एक-दूसरे को देख सकते हैं, मगर इसी दीवार की ओट से. मुझे इन चंद दिनों के अंदर बरसों की राह चलनी पड़ी है. मेरे अज़्म [साहस] ने मेरा साथ नहीं छोड़ा मगर मैं महसूस करता हूं कि मेरे पांव शल [शिथिल] हो गए हैं.’ (ग़ुबार-ए-ख़ातिर, पृष्ठ- 250) आज हममें से बहुतों के मन में इनके लिए इसलिए इज़्ज़त है कि इन्होंने यह एक साल साबितक़दमी से गुज़ारा. मगर हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि ‘जेल’ किसी भी आम नागरिक के लिए ख़ौफ़नाक जगह है. इस हवाले से देवांगना, नताशा और इनके हमख़याल जिन्हें जेल जाना पड़ा, अपवाद नहीं हैं- वे हमारी ही तरह के आम भारतीय नागरिक हैं. और फिर, उनमें सबसे बड़ी उम्र का बच्चा चीख उठा- ‘आंटी देखो, इंद्रधनुष!’ … बच्चों में एक तहलका-सा मच गया. हर बच्चा चाहता था कि उसे गोद में उठाया जाए और उसे इंद्रधनुष का बेहतर नज़ारा देखने को मिले. महिलाएं भी शोर मचातीं, एक दूसरे को बाहर आकर यह दृश्य देखने को बुला रही थीं… बहुतों के लिए यह पहला इंद्रधनुष था – ‘कभी सोचा नहीं था जेल में आकर पहली बार देखूंगी.’ यूं आदमी तो सभी वर्ग के थे, मगर मध्यम वर्ग के बहुत ज़्यादा थे. लेकिन इन सब वर्गों में एक बात सामान्य थी. वे मामूली सज़ायाफ़्ता लोगों से बिल्कुल दूसरी तरह के थे और उनके साथ पुराने तरीक़े से बर्ताव नहीं किया जा सकता था. अधिकारियों ने यह बात मानी तो, मगर मौजूदा कायदों की जगह दूसरे कायदे न थे; और न पहले की कोई मिसालें थीं, न कोई पहले का तजुरबा. शायद इसी लिए एक आम नागरिक के तौर पर पिछले एक साल के दौरान यह ख़याल बार-बार मन में आता रहा कि जेल का जीवन उनके लिए कैसा होगा, कैसे हालात में वे रहते होंगे. ख़ास बात मगर यह है कि नज़रबंदी के मुश्किल दिनों में भी उन्होंने हौसला बनाए रखा और जिन भी हालात का सामना करना पड़ा, उनमें से भी अपने लिए बेहतर काम निकाल लिया- इसीलिए उनके बारे में सोचते वक़्त आज़ादी के संघर्ष के सिपाहियों का भी ध्यान आता है जिन्होंने अपनी क़ैद के दिन भी ज़ाया नहीं होने दिए थे. और इंद्रधनुष के ग़ायब होने के बाद नए सवाल आए- ‘आंटी, वो कहां गया?’ ‘वो क्यों चला गया?’ ‘कल आएगा क्या?’ ‘क्यों हमेशा नहीं रहता?’ मामूली कांग्रेसी क़ैदी न तो बहुत दब्बू था और न नरम. और जेल के अंदर होते हुए भी अपनी तादाद ज़्यादा होने से उस में यह ख़याल भी आ गया था कि हम में कुछ ताक़त है. बाहर के आंदोलन से और जेलख़ानों के अंदर के मामलों में जनता की नई दिलचस्पी पैदा हो जाने के कारण, वह और भी मज़बूत हो गया था. इस प्रकार कुछ-कुछ तेज़ रुख़ होते हुए भी हमारी सामान्य नीति जेल-अधिकारियों से सहयोग करने की थी.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ- 119-120) ज़मानत पर रिहाई के बाद देवांगना, नताशा और आसिफ़ द्वारा सार्वजनिक तौर पर साझा की गई बातों से कुछ-कुछ अंदाज़ा हुआ कि कैसे बसर हुए होंगे उनके ये जेल के दिन. देवांगना और नताशा की बातें सुनते हुए दिमाग़ में जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ‘ग़ुबार-ए-ख़ातिर’ के कुछ अंश याद आते रहे, जिनमें उन की जेलयात्राओं के वृत्तांत हैं.More Related News