क्या बहस सुनकर बदल जाता है वोटर का इरादा, US में राष्ट्रपति चुनाव से पहले डिबेट पर क्यों रहता है जोर?
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हाल में कुछ पूर्व जजों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस लीडर राहुल गांधी को सार्वजनिक बहस का न्योता दिया. वैसे अमेरिका में यह सिस्टम है कि वहां राष्ट्रपति चुनाव से पहले उम्मीदवार टीवी पर बहस करें. कई दूसरे देश भी बेहद गंभीरता से सर्वोच्च पद के लिए डिबेट कराते रहे. लेकिन क्या इनसे मतदाताओं की सोच पर कोई फर्क पड़ता है?
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कुछ पूर्व जजों ने पीएम नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक चिट्ठी लिखकर दोनों को ओपन डिबेट का न्योता दिया. चिट्ठी में लिखा गया कि सार्वजनिक बहस से लोग अपने नेताओं को सीधे सुन सकेंगे और इससे काफी फायदा होगा. लेकिन क्या वाकई ऐसा होता है?
अमेरिका समेत कई बड़े देशों में ये सिस्टम है. यहां सर्वोच्च पद के नेता और भावी नेता के बीच खुली बहस होती है, जिसे एक साथ भारी आबादी सुनती है. लेकिन शोध मानते हैं कि पहले से मन बना चुके वोटरों पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.
क्या फर्क पड़ता है मतदाताओं की सोच पर
साल 2019 में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल ने एक रिसर्च की, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी समेत कई देशों के 31 चुनावों के दौरान हुए 56 टीवी डिबेट्स को देखा गया. शोध में 94 हजार लोग शामिल थे. इनसे पूछा गया कि वे किसे वोट करना चाहते हैं. यही सवाल डिबेट के बाद भी पूछा गया. शोधकर्ता उम्मीद कर रहे थे कि लोगों के जवाब बदल जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पाया गया कि चुनावी बहस तो सबने देखी लेकिन इससे किसी का मन नहीं बदला. ये शोध साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित हुई.
क्या हो सकती हैं वजहें जो लोग राष्ट्रपति बहस को सुनते हैं, वे जाहिर तौर पर राजनैतिक रूप से काफी जागरुक होते हैं और पहले से ही अपना मन बना चुके रहते हैं कि उन्हें किसे वोट देना है. प्रेसिडेंशियल डिबेट से काफी पहले से कैंपेन चल रहे होते हैं. ज्यादातर वोटर इस दौरान डिसाइड कर लेते हैं कि उन्हें किसको वोट करना है. अगर डिबेट के दौरान कोई मुद्दा उठे भी, और हल्की-फुल्की हलचल मच जाए तब भी ये जल्दी दब जाता है.
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