
क्या कोविड महामारी को सामाजिक बदलाव लाने के मौक़े के तौर पर देखा जा सकता है?
The Wire
बीते कुछ सालों से बहुसंख्यकवाद पर सामाजिक ऊर्जा और विचार दोनों ख़र्च किए गए, लेकिन आज संकट की इस घड़ी में बहुसंख्यकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर कितना काम आ रहा है? महामारी ने यह अवसर दिया है कि अपनी प्राथमिकताएं बदलकर संकुचित, उग्र और छद्म राष्ट्रवाद को त्याग दिया जाए.
1946 से 1948 के बीच भारतीयों ने हिंदुस्तान के विभाजन से जुड़ी हिंसा का कटु अनुभव किया. उत्तर-पश्चिम से लेकर पूर्वोत्तर तक का क्षेत्र सांप्रदायिक नफरत की चपेट में था. हिंसा और नफरत की लपटों में महात्मा गांधी ने खुद को झोंका. मकसद सिर्फ हिंसा को रोकना न था. गांधी चाहते थे कि हिंदुस्तानी अपने आक्रोश, दुख और पीड़ा का सकारात्मक प्रयोग करें; देश के दो सबसे बड़े समुदायों के बीच आहत हुए रिश्तों को नए सिरे से जोड़ने का एक माध्यम बनाएं. इस चाहत के पीछे उनकी जन मनोविज्ञान की एक गहरी समझ थी. नितांत पीड़ा से जूझते समाज में मूलभूत बदलाव की बड़ी शक्ति और संभावना होती है. वह अपने पूर्वाग्रहों को सफलता के साथ छोड़ सकता है. एक नई दशा और दिशा पकड़ सकता है. इस दौरान गांधी की गतिविधियों का भूगोल नोआखली से दिल्ली तक फैला रहा. इसका इतिहास या उनका लिखा और कहा पढ़ें, तो वह इस जन मनोविज्ञान का प्रयोग करते मिलते हैं. गांधी का प्रयोग कितना सफल रहा और कितना विफल यह विवाद का विषय हो सकता है. पर उनकी जन मनोविज्ञान कि समझ पर कोई विवाद नहीं है.More Related News