
क्या आज़ादी और लोकतंत्र किसी देश का ‘आंतरिक मामला’ हो सकते हैं?
The Wire
1971 में बांग्लादेश के संघर्ष के वक़्त जब भारत कई हलकों में पाकिस्तान के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप की तोहमतें झेल रहा था, लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि लोकतंत्र किसी देश का आंतरिक मामला नहीं हो सकता और उसका दमन सारे संसार की चिंता का विषय होना चाहिए.
क्या आजादी और लोकतंत्र या इन दोनों के लिए किए जाने वाले संघर्ष किसी देश का आंतरिक मामला हो सकते हैं? और क्या विदेशियों की धरती पर उनसे इनके समर्थन के आह्वान या मांग को संबंधित देश के आंतरिक मामले में ‘विदेशी हस्तक्षेप को आमंत्रण’ माना जा सकता है?
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण दोनों ने अपने-अपने वक्त में लगातार कठिन होती कसौटियों के बीच भी इन सवालों के जवाब नहीं में दे रखे हैं. अफसोस की बात है कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार किसी भी तरह मानने या समझने को तैयार नहीं हो पा रहे कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गत दिनों लंदन में कथित रूप से ऐसे विदेशी हस्तक्षेप को आमंत्रित करके कोई अपराध नहीं किया.
इसीलिए पहले तो समूचा सत्तापक्ष राहुल द्वारा इस सिलसिले में सार्वजनिक तौर पर दी गई सफाई को दरकिनार कर इस बेतुकी मांग को लेकर आसमान सिर पर उठाता रहा कि वे उस कसूर के लिए माफी मांगें, जो उन्होंने किया ही नहीं. फिर सत्तापक्ष द्वारा खुद ही संसद की कार्यवाही रोकने का रिकॉर्ड बनाने में भी संकोच नहीं किया गया और उसकी आड़ में बजट पर चर्चा और बहुचर्चित हिंडनबर्ग-अडानी मामले की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच की मांग से भागता रहा.
फिर जैसे इतने पर भी संतोष न हो, एक अदालती फैसले की आड़ में (जिसे सुनाने वाली अदालत ने खुद ही उसे अपील तक के लिए स्थगित कर रखा है) राहुल को लोकसभा की उनकी सदस्यता से वंचित करने के बाद भी केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू बारंबार रट्टा मारे जा रहे हैं कि राहुल ने देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप के लिए विदेशी शक्तियों को आमंत्रित करने का नाकाबिल-ए-माफी गुनाह किया. यह पंक्तियां लिखने तक रिजिजू ने आखिरी बार यह बात तब कही, जब राहुल के खिलाफ आए अदालती फैसले के साथ ही उनके संसदीय जनादेश के निलंबन को लेकर जर्मनी की सत्तापक्ष के लिए असुविधाजनक प्रतिक्रिया सामने आई.