कोई बिखर गया, कोई निखर गया... सियासत में पार्टियों के टूटने की कहानी
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एनसीपी में हुई टूट किसी राजनीतिक दल के टूटने की पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी कई बार राजनीतिक दलों में बगावत, दो फाड़ होने या किसी नेता के नए दल बनाने के घटनाक्रम हुए हैं. नजर डालते हैं दलों के टूटने की कहानी पर...
महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) टूट की ओर है. पार्टी के नाम और निशान की लड़ाई चुनाव आयोग की चौखट पर लड़ी जा रही है. आयोग का फैसला शरद पवार के पक्ष में आए या अजित के, पार्टी के दो फाड़ होने और एक नए राजनीतिक दल के गठन का आधार तैयार हो गया है.
वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब कोई पार्टी टूटने की ओर हो. देश की राजनीति का इतिहास पार्टियों में बगावत, टूटने, बनने, बढ़ने और बिगड़ने के घटनाक्रमों से भरा पड़ा है. ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस की ही बात करें तो वह अपने गठन के बाद से अब तक कई बार टूट चुकी है लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब पार्टी दो फाड़ हो गई थी. उसकी भी चर्चा करेंगे लेकिन पहले बात महाराष्ट्र और किसी पार्टी के टूटने के सबसे ताजा घटनाक्रम की.
1- शिवसेना
बाल ठाकरे ने जब शिवसेना का तीर-कमान और अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपी थी, तब किसी ने शायद ही सोचा हो कि एक दिन पार्टी ठाकरे परिवार के हाथ से फिसल जाएगी. उद्धव होंगे लेकिन शिवसेना का तीर-कमान उनसे कोई छीन ले जाएगा. बाल ठाकरे ने 2003 में अपनी राजनीतिक विरासत के प्रबल दावेदार माने जाने वाले भतीजे राज ठाकरे को दरकिनार कर उद्धव को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया था. शिवसेना का अंतर्द्वंद्व समय-समय पर सामने आता रहा लेकिन पहली बगावत हुई साल 2006 में.
राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) नाम से नई पार्टी का गठन किया. तब बाल ठाकरे शिवसेना प्रमुख थे. बाल ठाकरे के निधन के बाद तीर-धनुष औपचारिक रूप से उद्धव के हाथ में आ गया. उद्धव साल 2013 में शिवसेना के अध्यक्ष चुन लिए गए. शिवसेना ने 2014 और 2019 के महाराष्ट्र चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया. उद्धव के अध्यक्ष रहते ही किंग मेकर की भूमिका निभाते रहे ठाकरे परिवार ने किंग यानी सत्ता के शीर्ष तक का सफर तय किया. शिवसेना अपनी हार्ड हिंदुत्व की इमेज से बाहर आई लेकिन उद्धव के ही अध्यक्ष रहते शिवसेना ठाकरे परिवार के हाथ से फिसली भी.
साल 2022 में शिवसेना के स्थापना दिवस 19 जून की अगली ही सुबह उद्धव के सबसे विश्वस्त सहयोगी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के विधायकों ने बगावत कर दी. उद्धव को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. शिवसेना के कुल 56 में से 40 विधायकों का समर्थन शिंदे के साथ था. शिंदे गुट ने खुद को असली शिवसेना घोषित कर दिया और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए. चुनाव आयोग का शिवसेना के नाम और निशान को लेकर फैसला शिंदे के पक्ष में आया. उद्धव को अपना सियासी वजूद बचाए रखने के लिए शिवसेना यूबीटी नाम से अलग पार्टी बनानी पड़ी. दोनों दलों में कौन बिखरता है, कौन निखरता है? ये तो जब चुनाव होंगे, चुनाव नतीजे आएंगे तभी साफ होगा.
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