किसान आंदोलन की कामयाबी क्या जन आंदोलनों को भी देगी नया जीवन?
BBC
तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त किया जा रहा है. लेकिन देश में सीएए, कश्मीर, श्रम क़ानूनों के उदारीकरण, निजीकरण, नई शिक्षा नीति, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार की बदहाली जैसे कई मुद्दे और आंदोलन लंबे समय से प्रासंगिक बने हुए हैं. तो क्या किसान आंदोलन को मिली सफलता से दूसरे आंदोलनों को भी फ़ायदा होगा?
भारत में किसान आंदोलन के एक साल पूरे हो रहे हैं. नरेंद्र मोदी सरकार ने सितंबर, 2020 में तीन विवादास्पद कृषि क़ानून लागू करने का फ़ैसला लिया था. इन तीनों क़ानूनों के विरोध में 25-26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर जुट कर किसानों ने अपना आंदोलन शुरू किया था.
इस आंदोलन के एक साल पूरे होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने का एलान किया है, लेकिन दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का प्रदर्शन अब भी जारी है.
इन तीन क़ानूनों की वापसी की संवैधानिक प्रक्रिया भी शुरू हो गई है. बुधवार को मोदी सरकार के मंत्रिमंडल ने इन क़ानूनों की वापसी के बिल को मंजूरी दे दी है और अब इसे संसद के पटल पर रखा जाएगा.
लेकिन किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने इन क़ानूनों को संसदीय प्रक्रिया के ज़रिए निरस्त करने के साथ किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर क़ानून बनाने की मांग की है. साथ ही उन किसानों के परिजनों के लिए मुआवज़े की भी मांग की है जिन्होंने आंदोलन के दौरान अपनी जान गवाईं हैं.
लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार ने इन तीनों क़ानून को वापस लिया, उससे देश भर में यह संदेश ज़रूर गया कि किसानों ने मोदी सरकार को झुकने पर मज़बूर कर दिया. हालांकि किसान आंदोलन से जुड़े लोगों और कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सरकार ने ये फ़ैसला उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों को देखते हुए लिया है.