कविता बेआवाज़ को आवाज़ देती है, अनदेखे को दिखाती है, अनसुने को सुनाती है
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कविता याद रखती है, भुलाने के विरुद्ध हमें आगाह करती है. जब हर दिन तरह-तरह के डर बढ़ाए-पोसे जा रहे हैं, तब कविता हमें निडर और निर्भय होने के लिए पुकारती है. यह समय हमें लगातार अकेला और निहत्था करने का है: कविता हमें अकेले होने से न घबराने का ढाढ़स बंधाती है.
जहां तक हमारी जानकारी है, ऐसा हिन्दी में पहली बार हुआ. यह भी अनुमान है कि ऐसा किसी और भारतीय भाषा में कभी नहीं हुआ. 30 युवा हिन्दी लेखकों ने दो दिन रज़ा और नर्मदा की पुण्यनगरी मंडला में, कृष्णासोबती-शिवनाथ निधि और रज़ा फाउंडेशन के वार्षिक आयोजन ‘युवा-2022’ में भारत के छह हिन्दीतर मूर्धन्य कवियों शंख घोष (बांग्ला), अयप्पा पणिक्कर (मलयालम), हरभजन सिंह (पंजाबी), अख़्तरउल ईमान (उर्दू), अरुण कोलटकर (मराठी) और रमाकांत रथ (उड़िया) पर पूरी तैयारी से, उनके काव्य को हिन्दी अनुवाद में पढ़कर, गंभीरता से विचार और विश्लेषण किया. कुछ वरिष्ठ लेखक पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हुए.
सबसे उत्साहजनक बात यह थी कि सभी प्रतिभागी कविताओं को ध्यान से पढ़कर आए थे: इतने सारे लेखक हिन्दीतर कवियों का अनुवाद में पढ़कर आएं यह प्रीतिकर था. कइयों ने अनुवाद में पढ़ने के कारण अपना अनुभव और जानकारी किसी हद तक सीमित होने की बात का ज़िक्र भी किया.
पर जो बात थोड़ी खली वह यह थी कि हालांकि ज़्यादातर प्रतिभागी कवि या कथाकार हैं, उनकी आलोचना में सर्जनात्मक ताप और नवाचार का, कुल मिलाकर, अभाव दीख पड़ा. मैंने उन्हें यह याद दिलाया कि हिन्दी में सृजनशील लेखकों द्वारा जो आलोचना लिखी गई है वह अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, विजय देव नारायण साही आदि के यहां हमेशा नवाचारी रही है और ऐसे अनेक पद, शब्द-समुच्चय, अवधारणाएं, उक्तियां आदि हैं जो इन्हीं से आई हैं और बहुत व्याप्त हैं.
युवा लेखक अनेक सामान्यीकरणों का बड़ी उदारता से उपयोग करते हैं जबकि अवधारणाओं की व्यापक दुर्व्याख्या के इस समय में परंपरा, आधुनिकता, यथार्थ, पश्चिमी प्रभाव, समय, आत्म सरोकार, समाज, आम आदमी, समयबोध, सरलता, जटिलता, प्रासंगिकता आदि शब्द और पद सूक्ष्म विश्लेषण और नई सत्यनिष्ठ व्याख्या की मांग करते हैं.