‘कर्बला दर कर्बला’ भागलपुर दंगों की विभीषिका की तहें खोलने का प्रयास है
The Wire
पुस्तक समीक्षा: गौरीनाथ के ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है. 1989 के भागलपुर दंगों पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.
अपनी बीती लिखते हुए मंटो ने एक कहानी में बयान दिया था कि’ये मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मरे हैं… ये कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं…’ Truth is greater than hypothesis. The artist must paint life as he sees it all around him. We invent nothing; we imagine nothing except what exists already. ‘एक लाश गिरने पर गद्दी मिलती है और साप्ताहिक शोक घोषित हो जाता है. हज़ारों लाशें गिरती हैं, लेकिन संवेदना का एक क़तरा नहीं गिरता. जले पर नमक कि बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है.’ ‘निकल साला मियां! पाकिस्तान का दलाल! आईएसआई का एजेंट! तेरी बीवी को… तेरी बेटी को… ऐसी गंदी-गंदी, नंगी और हिंसक गालियां कि मैं बोल नहीं सकती शिव! मुझे वो गालियां सीधे टांगो के बीच रेंगती जान पड़ती हैं! भीतर चोट करती रहती हैं! अब भी याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं! अम्मी, भाईजान और मैं तीनों डर से कांपते घर में बंद थे!’ ‘नहीं शिव वो तो शुरुआत थी. उसके बाद अक्सर सपने में मैं उसी रात की तरह घिर जाती हूं. उससे भी भीषण! मैं देखती हूं उन्हीं गालियों की तरह लोग मेरे साथ कर रहे हैं, मेरा दम घुटने लगता है शिव.’ ‘दोनों (ज़रीना और उसके बड़े भाई) हिंदू संग फंसते जा रहे हैं. पता नहीं कैसे कटेगी इनकी ज़िंदगी.’
इस जुमले पर मैं सिर धुनता हूं कि दंगे की किसी कहानी में इंसान-दोस्ती पर इतना दर्द-मंद तब्सिरा शायद ही किया गया हो. लेकिन, इस ‘आदर्शवादी’ विचार से अलग मुझे आज हर तरह का इल्ज़ाम अपने सिर लेते हुए कहने दीजिए कि दंगे में मुसलमान ज़्यादा मरते हैं. ‘ख़ुद को नेहरू के विचार-मॉडल का उत्तराधिकारी बताने वाला थोड़े से वोट के लिए नेहरू की आत्मा को लहूलुहान करने में ज़रा भी शर्म-लिहाज़ नहीं महसूस करता है. तभी तो वे बाला साहेब देवरस से हाथ मिलाते हैं और नागपुर से सौदा करते हैं.’
ये बात ज़ोर देकर इसलिए भी कह रहा हूं कि हाल ही में प्रकाशित गौरीनाथ के उपन्यास ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है. ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद ही आरएसएस को कांग्रेस से उम्मीद बंध गई थी और सिख-दंगे के बाद तो राजीव गांधी में हिंदूहित-चिंतक की छवि साफ़ दिखने लगी. तभी तो हिंदू वोट में थोड़ी बढ़ोतरी की उम्मीद पर दिल्ली-नागपुर कनेक्शन बना है.’
1989 के भागलपुर दंगे बल्कि नरसंहार पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.