
उत्तराखंड: पहाड़ों में आपदाएं सियासी मुद्दा क्यों नहीं बनती हैं…
The Wire
पहाड़ों में जनता की दुख-तकलीफ़ों को दूर करने के सियासी एजेंडा में पर्यावरण और विकास के सवाल हमेशा से ही विरोधाभासी रहे हैं क्योंकि राजनीतिक दलों को लगता है कि पर्यावरण बचाने की बातें करेंगे तो विकास के लिए तरसते लोग वोट नहीं देंगे.
उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव सिर पर हैं. दो दशक पूर्व राज्य बनने के बाद अब चार महीने बाद यहां के मतदाता पांचवीं बार नई सरकार के लिए वोट डालेंगे. लेकिन जब भी राजनीतिक पार्टियां चुनाव में वोट मांगने जाती हैं तब न तो कोई पर्यावरण की बात करता है और न ही पहाड़ों में हर साल होने वाली आपदाओं से बचाव के लिए कोई चिंता उनकी बातों, भाषणों या घोषणा पत्र में झलकती है.
दूसरी ओर मौसमी बदलाव, भयावह आपदाएं और पर्वतीय जनजीवन पर प्रकृति के रौद्र रूप का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव साल दर साल तीव्र हो रहा है.
वास्तव में पहाड़ों में जनता की दुख-तकलीफों को दूर करने के सियासी एजेंडा में पर्यावरण और विकास के सवाल हमेशा से ही विरोधाभासी रहे हैं. इसलिए कि राजनीतिक दलों को लगता है कि पर्यावरण बचाने की बातें करेंगे तो विकास के लिए तरसते लोग वोट नहीं देंगे.
जाने-माने पर्यावरणविद व मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, ‘पर्यावरण संरक्षण की बातों को उत्तराखंड की सियासी पार्टियां और उनके नेतागण विकास विरोधी अवधारणा मानकर चलते हैं. जबकि हमें पर्यावरण संरक्षण की चिंता इसलिए होनी चाहिए कि इसी पर हमारी भावी पीढ़ी का भविष्य टिका है. यदि पर्यावरण का संरक्षण नहीं होगा और ऐसी नीतियां अपनाई जाती रहेंगी जिनसे विकास नहीं बल्कि विनाश को न्योता मिलेगा तो ज़ाहिर सी बात है कि हम अपने समाज ही नहीं समूची मानवता को एक अंधेरी गली में धकेल रहे हैं.’