![इक बे-नूर गली से, तरतीब चराग़ों की शुरू होती है... एक सफ़हा खुलता है, 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का पता मिलता है](https://akm-img-a-in.tosshub.com/aajtak/images/story/202407/6699088ea8a75-mirza-ghalib-haveli-in-delhi-182028934-16x9.jpg)
इक बे-नूर गली से, तरतीब चराग़ों की शुरू होती है... एक सफ़हा खुलता है, 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का पता मिलता है
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दिल्ली में ग़ालिब की हवेली है जहां इस महान शायर ने अपने जीवन के आखिरी दिन गुजारे. 1860 से लेकर 1869 तक ग़ालिब के दिन इसी हवेली में . ग़ालिब और उर्दू के चाहने वाले भारत में ही नहीं दुनिया के कोने-कोने में थे. मिर्ज़ा ग़ालिब खाने के बेहद शौक़ीन थे.
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब...शेर-ओ-शायरी की दुनिया का एक ऐसा नाम जिसे शामिल किए बगैर उर्दू और फ़ारसी शायरी मुक्कमल नहीं होती. ग़ालिब अपने बारे में खुद बताने की बजाय उल्टा पूछते हैं कि वो क्या बतलाएं. लेकिन सच तो ये है कि गालिब के बारे में जितना बतलाया जाएगा, वो कम ही होगा.
मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब यानी 'मिर्ज़ा नौशा' या मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को काले महल हवेली पीपल मंडी बाज़ार, आगरा में हुआ था. लेकिन 10 से 11 वर्ष की आयु में वो दिल्ली आ गए और फिर यहीं के हो गए. दिल्ली में ग़ालिब की हवेली है जहां इस महान शायर ने अपने जीवन के आखिरी दिन गुजारे. मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली फिलवक्त किस हाल में है ये जानने के लिए हम पहुंचे पुरानी दिल्ली की कासिम जान बल्लीमारान नाम की गली में.
यहां पहुंचने के लिए काफी तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता है. ग़ालिब की हवेली की देखरेख करने के लिए हमेशा एक व्यक्ति की ड्यूटी लगती है. 24 घंटे की शिफ्ट को 8-8 घंटे के तीन हिस्सों में बांट दिया गया है.
हवेली की देखरेख करने वाले गुलाम मुस्तफा बताते हैं कि 1860 से लेकर 1869 तक ग़ालिब के दिन इसी हवेली में गुजरे. यहीं उनका इंतकाल हुआ. निजामुद्दीन में ग़ालिब की मजार है. ग़ालिब के आखिरी दिन बहुत मुश्किल भरे थे. उनके सात बच्चों का इंतकाल हो गया था. अंग्रेजी हुकूमत आ गई थी. बहादुर शाह जफर के दरबार से मिलने वाला वजीफा भी बंद हो गया था.
गुलाम मुस्तफा बताते हैं, ' 1947 में जब मुल्क आजाद हुआ तो बड़ी-बड़ी हवेलियां खाली हो गईं और कारखाने खुल गए. इस हवेली में भी हीटर के फैक्ट्री खुल गई. कोयले का काम शुरू हो गया. फिर 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब पर बना सीरियल दूरदर्शन पर रिलीज़ हुआ और 1996 में इसके खत्म होने के बाद सीरियल में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार निभाने वाले नसीरुद्दीन शाह ने सरकार से मिलकर हवेली को खाली कराया. हालांकि इसके दो हिस्से ही खाली हो पाए. करीब 75 फीसदी हिस्से पर अब भी कब्ज़ा है.'
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