आज़ाद भारत का पहला दिन, जब नेहरू ने कहा था- मेरा लाहौर जल रहा है
BBC
लाहौर के नए प्रशासन ने हिंदू और सिख इलाक़ों की पानी की आपूर्ति काट दी थी. लोग प्यास से पागल हो रहे थे. जो औरतें और बच्चे पानी की तलाश में बाहर निकल रहे थे, उन्हें चुन-चुन कर मारा जा रहा था.
जब 14 अगस्त, 1947 की शाम लॉर्ड माउंटबेटन कराची से दिल्ली लौटे तो वो अपने हवाई जहाज़ से मध्य पंजाब में आसमान की तरफ़ जाते हुए काले धुएं को साफ़ देख सकते थे. इस धुएं ने नेहरू के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े क्षण की चमक को काफ़ी हद तक धुंधला कर दिया था. 14 अगस्त की शाम जैसे ही सूरज डूबा, दो संन्यासी एक कार में जवाहर लाल नेहरू के 17 यॉर्क रोड स्थित घर के सामने रुके. उनके हाथ में सफ़ेद सिल्क का पीतांबरम, तंजौर नदी का पवित्र पानी, भभूत और मद्रास के नटराज मंदिर में सुबह चढ़ाए गए उबले हुए चावल थे. जैसे ही नेहरू को उनके बारे में पता चला, वो बाहर आए. उन्होंने नेहरू को पीतांबरम पहनाया, उन पर पवित्र पानी का छिड़काव किया और उनके माथे पर पवित्र भभूत लगाई. इस तरह की सारी रस्मों का नेहरू अपने पूरे जीवन विरोध करते आए थे लेकिन उस दिन उन्होंने मुस्कराते हुए संन्यासियों के हर अनुरोध को स्वीकार किया. थोड़ी देर बाद अपने माथे पर लगी भभूत धोकर नेहरू, इंदिरा गांधी, फ़िरोज़ गाँधी और पद्मजा नायडू के साथ खाने की मेज़ पर बैठे ही थे कि बगल के कमरे मे फ़ोन की घंटी बजी. ट्रंक कॉल की लाइन इतनी ख़राब थी कि नेहरू ने फ़ोन कर रहे शख़्स से कहा कि उसने जो कुछ कहा उसे वो फिर से दोहराए.More Related News