असम फायरिंग को अवैध कब्ज़े से ज़मीन ख़ाली कराने के मसले के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए
The Wire
असम में ज़मीन से ‘बाहरी’ लोगों की बेदख़ली मात्र प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक अभियान है. बेदख़ली एक दोतरफा इशारा है. हिंदुओं को इशारा कि सरकार उनकी ज़मीन से बाहरी लोगों को निकाल रही है. और मुसलमानों को इशारा कि वे कभी चैन से नहीं रह पाएंगे.
असम में हाल में हुई हिंसा ने देश का ध्यान खींचा है. दरांग जिले में सिपाझार के धालपुर 2 के गोरुखुटी में पुलिस की गोली से दो लोग मारे गए. इसकी खबर असम के अखबारों ने किस तरह छापी? अंग्रेज़ी अखबार ‘सेंटिनल’ से एक नमूना देखिए, ‘सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण हटाने के लिए जिला प्रशासन के एक बड़े अभियान के दौरान इलाके के हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया. जब प्रशासन ने उनसे हट जाने की अपील की तब उनमें से कुछ लोगों ने पुलिस पर हमला करने की कोशिश की जिससे विरोध हिंसक हो उठा. उपद्रवी प्रदर्शकारियों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को लाठी चलानी पड़ी और कुछ राउंड गोली चलानी पड़ी. इस कार्रवाई में कथित रूप से दो प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई.’
इसी बीच एक वीडियो प्रसारित होने लगा. इस वीडियो में पुलिस दिखलाई पड़ती है. लगातार गोली चलने की आवाज़ सुनाई देती है. निशाना सामने नहीं है. गोलियां चल रही हैं. सामने झाड़ी है. अचानक एक दुबला-पतला गंजी-लुंगी पहने एक आदमी लाठी उठाए दौड़ता दिखाई पड़ता है. पुलिसवाले भाग रहे हैं. वह आदमी जिधर आ रहा है उधर पुलिसवालों का झुंड है. वह अकेला दौड़ रहा है. उसे पुलिसवाले घेर लेते हैं.
एक पुलिसवाले की उंगली उसकी राइफल के ट्रिगर पर दिखती है. वह शख्स गिर चुका है. आपको उसकी छाती पर लाल रंग फैलता दिखता है. वह उसका खून ही है. कैमरे की निगाह उस पर टिकी हुई है. आप उसकी छाती अब भी धड़कती हुई देख सकते हैं. उसका सिर आसमान की तरफ है. आंखें क्या अभी भी खुली हैं, आप अंदाजा लगाते हैं.