'अर्बन नक्सल' के बाद अब 'साहित्यिक नक्सल', ये केवल जुमला नहीं है - नज़रिया
BBC
'शववाहिनी गंगा' नाम की चर्चित गुजराती कविता को पढ़ने और साझा करने वालों को साहित्यिक नक्सल घोषित करना आख़िर किस ओर इशारा करता है?
गुजराती भाषा की कवयित्री पारुल खक्खर को कुछ दिन पहले तक गुजरात के बाहर कम लोग जानते थे. लेकिन पिछले दिनों उन्होंने 14 पंक्तियों की एक कविता लिखी 'शववाहिनी गंगा',जिसके बाद अचानक वे सुर्खियों में चली आईं. कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान नदियों में शवों को बहाए जाने से विचलित और आहत होकर लिखी गई इस छोटी-सी कविता का रातों-रात कई भाषाओं में अनुवाद हो गया. हिंदी-पंजाबी और दूसरी भाषाओं में उसके कई पाठ यूट्यूब पर आ गए. लेकिन नई ख़बर यह है कि गुजराती साहित्य अकादेमी की आधिकारिक पत्रिका 'शब्दसृष्टि' के संपादकीय में इस कविता की तीखी आलोचना करते हुए इसके प्रचार-प्रसार को राष्ट्रविरोधी गतिविधि बताया गया है जिसे 'साहित्यिक नक्सल' तत्व बढ़ावा दे रहे हैं. दिलचस्प यह है कि अपने साहित्यिक अतीत में पारुल खक्खर नक्सल तो दूर, वामपंथी विचारधारा की साहित्यकार भी नहीं ठहराई जा सकतीं, अगर उनके लेखन की कोई कोटि बनाई ही जानी है तो अंततः वे दक्षिणपंथी खेमे में ही रखी जाएंगी.More Related News