अब कोर्ट को संकोच छोड़कर कह देना चाहिए कि उमर का जुर्म सिर्फ़ उनका नाम उमर ख़ालिद होना है
The Wire
भारत में अदालतों में न्याय अब अपवाद बनता जा रहा है. ख़ासकर जब न्याय मांगने वाले मुसलमान हों या इस सरकार के आलोचक या विरोधी हों.
जैसी आशंका थी, अदालत ने उमर ख़ालिद की ज़मानत की अर्ज़ी ख़ारिज कर दी है. आशंका इसलिए थी कि भारत में अदालतों में न्याय अब अपवाद बनता जा रहा है. ख़ासकर जब न्याय मांगने वाले मुसलमान हों या इस सरकार के आलोचक या विरोधी हों.
भारत की अदालतों ने इन लोगों के लिए ‘जेल नहीं, बेल’ के नियम को उलट दिया है. उनके लिए नियम जेल है. ज़मानत अपवाद. यह भी हमें भूल जाना चाहिए कि ज़मानत देते वक्त आप पूरा मुक़दमा नहीं चलाते बल्कि सिर्फ़ यह देखते हैं कि अभियुक्त के बाहर रहने से मुक़दमे की दिशा प्रभावित हो सकती है या नहीं.
अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने डॉक्टर जीएन साईबाबा को वापस जेल में डालने में जो तत्परता दिखलाई, उससे ज़ाहिर हो जाता है कि अब अदालतें भारत के नागरिकों की आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि यह निश्चित करने को चौकन्नी हैं कि कहीं समाज में आज़ादी का भाव ज़िंदा न रह जाए. यह समझना बहुत ज़रूरी है कि जनतंत्र में आज़ादी का भाव तभी जीवित रहता है जब सरकार या राज्य के आलोचक अपनी बात कहने को आज़ाद हों.
लेकिन भारत की न्याय व्यवस्था को सरकार के आलोचकों की आज़ादी बर्दाश्त नहीं. यह उमर ख़ालिद की अर्ज़ी रद्द किए जाने के पहले बंबई उच्च न्यायालय के द्वारा कबीर कला मंच की गायिका ज्योति जगताप की ज़मानत की याचिका को ठुकराए जाने से भी साफ़ हो गया था. फिर भी एक हल्की-सी उम्मीद थी कि न्याय प्रणाली में शायद कहीं न्याय का विचार जीवित बचा रह गया हो.व ह नहीं हुआ. अदालत ने शंकालुओं को निराश नहीं किया.