अपने ही 'बोझ' तले तो नहीं दबने जा रही हैं वसुंधरा राजे
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वसुंधरा राजे की ताकत ही उनकी मुसीबत बनती जा रही है. क्योंकि राजनीति में भी वो वसुंधरा ने अपना एक घराना बना रखा है. बीजेपी नेतृत्व उस घराने को फूटी आंख नहीं देखना चाहता - यही वजह है कि राजस्थान में राजनीति अब आन-बान-शान की लड़ाई बन कर रह गयी है. ऐसी ही एक लड़ाई कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ लड़ी थी. कैप्टन आज कांग्रेस ही नहीं, राजनीति के हाशिये पर हैं.
वसुंधरा राजे की छवि ऐसे नेता की बन चुकी है जो मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को सीधे चैलेंज करता है. 2014 के बाद से मोदी-शाह की जोड़ी वैसे ही ताकतवर नेतृत्व बन कर उभरी है, जैसे किसी दौर में इंदिरा गांधी संगठन और सत्ता पर एक बराबर काबिज हुआ करती थीं.
वसुंधरा राजे पुराने दौर की बीजेपी की शायद अकेली नेता होंगी जो अब भी अपनी जिद पर कायम हैं. वरना, बीजेपी नेताओं का हाल तो सब देख ही रहे हैं.
लोकतंत्र के नाम पर बीजेपी में सिर्फ फैसले सुना दिये जाते हैं. किसी को कोई जिम्मेदारी देने से पहले उनसे कुछ पूछा नहीं जाता. बस बता दिया जाता है. मध्य प्रदेश को लेकर बीजेपी उम्मीदवारों की जो सूची जारी हुई है, उसमें और अफसरों के ट्रांसफर के किसी सरकारी सूची में क्या फर्क है. अचानक सूची के सामने आने पर सांसदों की कौन कहे, मंत्रियों तक को मालूम होता है कि उनका उनके होमटाउन में ट्रांसफर कर दिया गया है.
ले देकर कैलाश विजयवर्गीय अकेले नेता रहे जो सरेआम दिल की बात जबान पर ला पाये. साफ बता दिये कि बड़े नेता बन जाने के बाद कौन सोचता है कि ये सब भी करना पड़ेगा. घूम घूम कर लोगों के सामने हाथ जोड़ना पड़ेगा. लेकिन इससे ज्यादा उनके हाथ में कुछ है भी नहीं. लिहाजा, ये भी मान लिये कि क्या किया जा सकता है - पार्टी का हुक्म है, हुक्म की तामील तो करनी होगी ही.
राजस्थान को लेकर भी मोदी-शाह दरबार से मध्य प्रदेश जैसा ही फरमान आने वाला है, लेकिन उसमें एक ही अपवाद होगा और वो हैं - वसुंधरा राजे. आलाकमान से दो-दो हाथ के लिए हरदम तैयार रहती हैं वसुंधरा राजे.
वसुंधरा की ताकत बनी मुसीबत
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