Captain Manoj Pandey: लखनऊ के 'परमवीर' मनोज पांडे के पार्थिव शरीर के साथ लौटी थी बचपन की बांसुरी
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1999 में करगिल युद्ध का रुख मोड़ने वाले लखनऊ के परमवीर कैप्टन मनोज पांडे बांसूरी भी बजाते थे. बचपन से ही. हिमालय की चोटियों पर दुश्मन को हराकर जीत की बांसूरी बजाई. ढाई साल की उम्र में जो बांसूरी खरीदी थी, वो उनके पार्थिव शरीर के साथ करगिल से लखनऊ लौटी थी. परमवीर के जन्मदिन पर विशेष...
'मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूं कि मैं मौत को भी मार डालूंगा'. 3 जुलाई 1999 को 24 साल की उम्र में कैप्टन मनोज पांडे (Captain Manoj Pandey) शहीद हो गए. करगिल युद्ध (Kargil War) पर जाने से पहले मनोज ने अपनी मां से वादा किया था कि वो अपने 25वें जन्मदिन पर घर जरूर आएंगे. वो घर तो आए लेकिन तिरंगे में लिपटकर. कैप्टन मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रुधा गांव में हुआ था.
करगिल युद्ध में भारत मां की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान देकर मनोज इतिहास में अमर हो गए. मनोज पांडे को उनके जन्मदिन पर परमवीर योद्धा की तरह याद करना ही सच्ची श्रद्धांजलि है. मनोज पांडे का जन्म एक गरीब नेपाली क्षेत्री परिवार में हुआ था. पिता गोपीचन्द्र पांडे परिवार का पेट पालने के लिए लखनऊ में हसनगंज चौराहे पर पान की दुकान लगाते थे. मां मोहिनी घर संभालती थीं. बचपन से ही मनोज ने गरीबी देखी थी. इसलिए बड़े भाई होने के नाते वो अपने भाइयों को बोलते थे कि मेहनत से पढ़ाई करना पापा का पैसा वेस्ट ना करना. मनोज को बचपन में ही इस बात की समझ हो गई थी कि उन्हें पढ़ाने में पापा को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. इसलिए वो कम में ही गुजारा करते थे. जब मां उन्हें रिक्शे से स्कूल जाने के लिए पैसे देती थी तो वो पैदल ही चले जाते थे. रिक्शे का पैसा बचा लेते थे. मनोज उम्र में छोटे थे परिवार की कमाई में कोई योगदान नहीं दे सकते थे. लिहाजा अपनी जरूरतों को ही छोटा कर लेते थे.
मनोज की मां मोहिनी ने बताया था कि जब वो ढाई साल के थे तो वो उन्हें मेला दिखाने शीतला मंदिर ले गई थीं. मां ने पूछा भइया जो लेना है वो ले लो, तब मनोज ने कहा कि मम्मी हमें बांसुरी दिला दो. मनोज की मां उन्हें भइया कहकर बुलाती थीं. यूं तो दुकानदार के पास बंदूक, बल्ला, गेंद जैसे कई तरह के खिलौने थे पर मनोज ने दो रुपये की बांसुरी खरीदी. उसे बजाना भी सीखा. वो बांसुरी मनोज साथ अंतिम सांस तक रही. जब उनका पर्थिव शरीर आया तो उस बक्से में वो बांसुरी भी उन्हीं के साथ आई. जिस गरीबी में कैप्टन मनोज पांडे का बचपन बीता था. उन परिस्थियों में कोई भी इंसान व्यवस्था से या तो हार जाता या दिन रात व्यवस्था को कोसता रहता पर मनोज ऐसे थे, उन्होंने व्यवस्था को बदलने का हौसला रखा. मनोज बचपन से ही सेना में भर्ती होना चाहते थे. स्कूल में वो हर विषय में अव्वल रहते. उनके नंबर इतने अच्छे थे कि उन्हें हर बार स्कॉलशिप मिली. उनकी सारी मेहनत इसलिए होती थी कि वो एक दिन आर्मी ऑफिसर बन पाएं.
मनोज का हमेशा से यही मानना था कि सिविल में तो हर कोई नौकरी कर लेता है. उन्हें तो सेना में शामिल होने की धुन सवार थी. मनोज ने आठवीं तक लखनऊ के रानी लक्ष्मी बाई मेमोरियल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाई की उसके बाद वो आर्मी स्कूल में भर्ती हुए. उनके जूनून को जैसे दिशा मिल गई. खेल और पढ़ाई में वो काफी तेज थे. किसी शख्स में दोनों चीजें बहुत कम देखने को मिलती हैं. NDA की लिखित परिक्षा पास करने के बाद मनोज को इंटरव्यू का कॉल आया तो उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. उन्हें अंग्रेजी ठीक से नहीं आती थी, गांव से ताल्लुक रखते थे. पर वो NDA का इंटरव्यू देने गए वो भी नए जूते पहनकर.
इंटरव्यू में उनसे सवाल पूछा गया था कि Why do you want to join the arm forces. तो उन्होंने साफ कहा था कि उन्हें 'परमवीर चक्र' चाहिए. मनोज का यह जवाब सुनकर इंटरव्यू पैनल के लोग हंसने लगे. फिर इस जवाब के सवाल पर अधिकारी ने पूछा क्या आप जानते हो परमवीर चक्र कैसे मिलता है, इस पर मनोज ने जवाब दिया कि ज्यादातर लोगों को मरणोपरांत मिलता है. मुझे अवसर मिलेगा तो मैं जीवित लेकर आऊंगा.'
मनोज पांडे तो पैदा ही परमवीर हुए थे. इसलिए उन्होंने उस बटालियन को चुना Bravest of Bravest, जिसे बहादुर से भी बहादुर कहा जाता है, यानी गोरखा राइफल्स. 6 जून 1995 को वन- इलेवन गोरखा राइफल्स में कमिशन कर लिया गया. मनोज पूरी तरह से शाकाहारी थे वो शराब, सिगेरट तक नहीं पीते थे. उनके यहां परंपरा है कि जो भी युवा ऑफिसर होगा, उससे दशहरा के मौके पर बकरे का सिर कटवाया जाएगा. गोरखाओं के लिए दशहरा सबसे बड़ा पर्व होता है. मनोज को यह काम दिया गया था. नर्म स्वभाव के मनोज ने अपने इस काम को पूरी मजबूती के साथ पूरा किया. उन्होंने पूजा में चढ़ाने के लिए बकरे की गर्दन काटी. उसके बाद उन्हें इतना बुरा लगा कि वो बार- बार हाथ धोते रहे. इसके बाद मनोज ऐसे सिपाही बने जिन्होंने युद्ध के मैदान में कई दुश्मनों को मार गिराया.
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