मां, इस अभागे देश को रूप दो, रूप की संवेदना दो…
The Wire
द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को...
‘रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि’, सुबह से जाने क्यों कान में बज रहा है. नवमी की प्रातः वेला है. नवमी नहीं, महानवमी! नवमी तो आती ही रहती है. किंतु यह तो है महानवमी. वर्ष में एक ही बार तो इसे आना है. क्या यह मामूली नवमी है?
जयपुर के गांधीनगर स्टेशन पर डबलडेकर की प्रतीक्षा करते हुए मन देवघर की तरफ मुड़ जाता है. नवमी की प्रतीक्षा की स्मृति की तरफ. जवाफूल, ढाक ध्वनि, धूप की गंध और उसके धूम्र में कड़वाती आंखें. आंखें जो दुर्गा की प्रतिमा को एक नज़र देखने को धुएं के पर्दे को चीर देना चाहती हैं. इस बार की तो, इस साल की तो आखिरी देखादेखी है! फिर तो मां की विदाई की तैयारी जो होनी है. एक बार जी भरकर देख लें.
मां! यानी बेटी. दुर्गा, भगवती! जाने कितने नाम हैं. जितने नाम उतने रूप. आप क्या दिगंबरा के रूप की ताव लगा सकते हैं! आख़िर हैं तो वे मेना की पुत्री ही न! एक औघड़ से जी लगा बैठीं और अब मां-बाप का महल छोड़ गांजा-धतूरा में मस्त उस दरिद्र की झोंपड़ी में झाड़ू लगाती हैं. मेना का कलेजा टूक-टूक हो जाता है इसके बारे में सोच-सोचकर. लेकिन बेटी इतनी निष्ठुर है! आती तो है मायके लेकिन जाने को तत्पर.
हिमालय ठहरे हिमालय, पिता, पुरुष. आंख से आंसू निकलें तो कैसे. सो, उनके हिस्से का दुख भी मेना को झेलना है. उसका बयान भी उसे ही करना है.