छत्तीसगढ़: कोयले के लिए काटे जा रहे हसदेव अरण्य के पेड़, बचाने के लिए डटे आदिवासी: ग्राउंड रिपोर्ट
BBC
बिजली के लिए कोयला ज़रूरी है लेकिन इसके खनन के लिए जंगल उजाड़ना कितना सही है? हसदेव अरण्य बचाने के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासी ये सवाल पूछ रहे हैं.
दोपहर का वक़्त है. चिलचिलाती धूप और तेज़ गर्म हवाओं की वजह से पारा आसमान छू रहा है.
तेज़ हवा अपने साथ पास की ही बड़ी खदान से धूल लेकर आ रही है. सूरज की किरणें आसमान से सीधे सर पर आ रहीं हैं. छांव की तलाश करते यहां मौजूद लोग उन पेड़ों के नीचे सहारा ढूंढ रहे हैं जो अब तक बचे हुए हैं. ये दिन का वो पहर है जब अपनी परछाई भी नहीं नज़र आ रही है.
जगह-जगह कटे हुए पेड़ पड़े हैं. ऐसा लग रहा है मानो आप पेड़ों के किसी श्मशान में पहुंच गए हों. आसपास जमा आदिवासी महिलाएं और पुरुष ग़मगीन हैं.
एक पेड़ की छांव में कुछ आदिवासी महिलाएं बैठी हुईं हैं. इनमें से एक हैं मीरा. हमें देखते ही वो कटे हुए पेड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहतीं हैं, "देखिये साहेब, पेड़ों को मार के गिरा दिया है. इसे मरघट बना दिया है."
ये उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का इलाक़ा है जो 1 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है. जहां आदिवासी बैठे हैं ये इलाक़ा बिलकुल 'परसा ईस्ट केटे बासेन कोयला परियोजना' के पहले 'फेज़' की खादान से लगा हुआ है.