क्या पाठ्यक्रम में धार्मिक किताबें शामिल करना शिक्षा के उद्देश्यों पर कुठाराघात नहीं है
The Wire
अगर शिक्षा को हम ‘मन की किवाड़ों के खुलने’, सृजनात्मकता को नई उड़ान देने की प्रक्रिया के तौर पर देखें तो धर्म उसकी बिल्कुल विपरीत प्रक्रिया की मिसाल के तौर पर सामने आता है, जहां स्वतंत्र विचार को नकारने पर ही ज़ोर रहता है. और जब आप किसी पाठ्यक्रम में धार्मिक ग्रंथ का पढ़ना अनिवार्य कर देते हैं, तब एक तरह से शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य को ही नकारते हैं.
‘सत्य की खोज के लिए निकला मनुष्य, जब अपनी खोज के दौरान थक गया, तो उसने मंदिर, मस्जिद, चर्च का निर्माण किया’
– मिर्जा ग़ालिब अपनी एक पर्शियन कविता में
केंद्रीय और राज्य सरकारों को स्कूली शिक्षा के बारे में सलाह और सहायता देने के लिए बनी एनसीईआरटी ने वर्ष 2018 में एक मैन्युअल का प्रकाशन किया था, जिसका फोकस था कि अल्पसंख्यक छात्रों की जरूरतों के लिए स्कूलों को किस तरह अधिक संवेदनशील बनाया जाए.
इसमें छोटी-छोटी बातों का भी जिक्र हुआ कि किस तरह स्कूलों के परिसरों में देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाने से या स्कूल की असेंबली में प्रार्थनाओं को अंजाम देने से अल्पसंख्यक मतों, समुदायों के छात्रों को अलगाव का सामना करना पड़ सकता है, ऐसे समूहों के खिलाफ स्कूल के शिक्षकों, सहपाठियों आदि द्वारा किए जा रहे प्रगट/प्रच्छन्न भेदभावों से उनकी जिंदगी किस तरह अधिक पीड़ादायी हो सकती है और स्कूल प्रबंधनों को इसके बारे में क्या कदम उठाने चाहिए।