औरतों पर पाबंदियों के लिए तालिबान जिस ‘इस्लाम’ का हवाला देता है, क्या वो असल में ऐसा कहता है
The Wire
इस्लाम के तमाम विचारक मानते हैं कि ज़माने और समाज में होने वाले बदलावों के साथ शरीयत के क़ानून में भी मुनासिब और ज़रूरी तब्दीलियां होती रहें और वो अपने आस-पास के हालात से भी प्रभावित होते रहें. हालांकि तालिबान ने इस्लाम और शरीयत के नाम पर उनकी सहूलियत के हिसाब से नए अर्थ निकाल लिए हैं.
इस्लाम के बारे में कुछ बातें पहले-पहल नाना जान से सुनी थीं, फिर उन्हीं की जमा की हुई किताबें रहनुमाई करने लगीं. ‘शरीयत की बुनियाद हिकमत (Wisdom) और लोगों के कल्याण पर है, और इसका मतलब इंसाफ़ है. और जिस मसले में इंसाफ़ के बजाय ज़ुल्म हो, रहमत के बजाय ज़हमत हो, फ़ायदे के बजाय नुकसान हो और अक़्ल के बजाय बे-अक़्ली हो. वो शरीयत का मसला नहीं है, हालांकि उसे व्याख्या के ज़रिए शुरू में दाख़िल कर लिया गया हो इसलिए शरीयत ख़ुदा के बंदों में उसका इंसाफ़ है और उसकी मख़लूक़ में उसकी रहमत है.’ अक़्ल का फ़तवा यही है कि ज़माने और सोसायटी की तब्दीलियों के साथ-साथ शरीयत के क़ानून में भी मुनासिब और ज़रूरी तब्दीलियां होती रहें और वो अपने आस-पास के हालात से भी प्रभावित होते रहें. ‘इस्लामी क़ानून चोरी पर हाथ काटने की सज़ा देता है, मगर ये हुक्म हर समाज में जारी होने के लिए नहीं दिया गया है, बल्कि इसे इस्लाम की उस सोसाइटी में जारी करना मक़सूद था जिसके मालदारों से ज़कात ली जा रही हो, जिसका बैतुलमाल हर हाजतमंद की इमदाद के लिए खुला हो, जिसकी हर बस्ती पर मुसाफ़िरों की तीन दिन ज़ियाफ़त लाज़िम की गई हो, जिसके निज़ाम-ए-शरीयत में सब लोगों के लिए बिल्कुल यकसां हक़ूक़ (समान अधिकार) और बराबर के मवाक़े (अवसर) हों. हां, ये बस एक बात नहीं है. आज मैं उनको इसलिए भी याद कर रहा हूं कि जिस ज़माने में औरतों की शिक्षा या ज़्यादा पढ़ने-लिखने को मायूब समझा जाता था, उन्होंने अपनी बेटियों को इस तरह से पढ़ाया कि वो स्नातकोत्तर से पहले ठहरी नहीं और अपने बाप की चमकती आंखों के सामने पहले कृषि विश्विद्यालय में नौकरी की, फिर पठन-पाठन के पेशे को अपना लिया. जिसके माशी निज़ाम (आर्थिक व्यवस्था) में तबक़ों की इजारा-दारी (ठेकेदारी) के लिए कोई जगह न हो और जायज़ कसब-ए-माश (रोज़गार) के दरवाज़े सबके लिए खुले हों. जिसके बच्चे-बच्चे को ये सबक़ दिया गया हो कि तू मोमिन नहीं है अगर तेरा हमसाया भूखा हो और तू ख़ुद पेट भरकर खाना खा बैठे. ये हुक्म आपकी मौजूदा सोसाइटी के लिए नहीं दिया गया था जिसमें कोई शख्स किसी को क़र्ज़ भी सूद के बग़ैर नहीं देता.’ इस तरह की घटनाओं को हमारे ज़माने में कुछ मुसलमान और युवा मुसलमान भी अच्छी निगाह से नहीं देखते, और अगर इस पर किसी तालिबानी की राय तलब की जाए तो आप शायद जानते हैं कि उनका जवाब क्या होगा. लेकिन क्या यही जवाब इस्लाम का भी है? एक शब्द में कह सकता हूं ‘नहीं.’ इस ‘नहीं’ की व्याख्या विस्तार से करने की कोशिश करूंगा, फ़िलहाल ये याद रखिए कि इतिहास के जिस कालखंड में औरतों को ज़िंदा दफ़न करने का रिवाज था, इस्लाम ने सबसे पहले उनको सोच के इस क़ब्रिस्तान से बाहर निकाला.More Related News